शनिवार, 27 अप्रैल 2013

टूटे खिलौने सा धर दिया

न जाने कितनी दामिनियाँ , गुड़ियाँ आदमी की कुत्सित सोच की भेंट चढ़ गईं। कहते हैं कि विध्वंस के लिये आदमी जितनी जल्दी एकजुट होता है , उतनी जल्दी सृजन के लिए नहीं होता। दामिनी की बदनसीबी देखिये कि उन छह दरिंदों में से एक ने भी इस काण्ड को अंजाम देने से रोकने के लिये विरोध तक न किया। आदमी की होशियारी देखिये कि बिना बोले आँख से ही खिल्ली उड़ा लेता है , दूसरे की टाँग खींच लेता है , एक बार भी नतीजे की परवाह नहीं करता। 
'जहाँ न पहुँचे रवि ,वहाँ पहुंचे कवि ' की तर्ज़ पर हमारा मीडिया हर जगह पहुँच जाता है। अपराधियों ने कभी न सोचा होगा कि उनके अपराध जग-जाहिर हो जायेंगे। और अगर आत्मा जगी हुई होती या अपराधों के प्रकाश में आने का डर उन्हें होता तो वो इतने जघन्य अपराध कर ही नहीं सकते थे। 
हम लोग लगे हुए हैं पुलिस , मुकदमा , सख्त सजा , सरकार का दबाव बनाने में।इतनी सख्त सजा जो किसी की रूह कंपा दे ..यानि भय से एक हद तक अपराध काबू में रह सकते हैं। यहाँ विचारणीय विषय यह है कि बढ़ते अपराधों का कारण क्या है। बहुत खुलापन या सीमा में रखने की कोशिश में पड़ा हुआ दबाव। यूरोपीय देशों की तर्ज़ पर फैशन , सर्वसुलभ मोबाइल और नेट पर मिली सुविधाओं का गलत प्रयोग और लुप्त होते हुए नैतिक मूल्य ..आदमी को कहाँ पहुँचायेंगे। जिस बात को दबाया जाए वो भी दुगनी ताकत से फूट पड़ती है , ये जग को विदित है। आदमी की सोच मायने रखती है , वो अपनी ताकत को सही दिशा देता है तो सृजन होता है। भटकने में देर नहीं लगती , अँकुश नहीं है तो विध्वंस भी दूर नहीं है। 
सारी कवायदें ज़िन्दगी की ज़िन्दगी के लिए 
सारे डर मौत के , विध्वंस के 
मेरी नजर में तो आदमी जीने के लिए सारी कवायदें करता है ..फिर ये क्या होता है कि भटक कर बिच्छू की तरह अपनी ही पूँछ खाने लग जाता है। 
इन अपराधिओं की मनो-चिकित्सकों द्वारा स्टडी की जानी चाहिए कि इनके बचपन या रोजमर्रा की ज़िन्दगी में ऐसा क्या-क्या शामिल था , जिसने इन्हें ऐसी कुत्सित सोच की तरफ धकेला। जब बीज पड़ा ही था उसे खाद-पानी न दिया जाता तो पौधा पनपता ही नहीं। गुड़िया के एक अपराधी की छह महीने पहले ही शादी हुई थी ,उसकी पत्नी कुछ दिन पहले उसे छोड़ कर चली गयी थी ; ऐसा टी वी न्यूज से पता चला। उसकी पत्नी से उसके रिश्ते कैसे थे , ये भी अपराधी की मानसिकता पर प्रकाश डाल सकते हैं। बीमार मानसिकता ही उन्हें इन अन्धी गलियों के कगार पर छोड़ गई है। 
निठारी-काण्ड को लीजिये। कितने बच्चों के कंकाल नाले से और किडनियाँ लिवर फ्रिज से मिले थे। सोच कर ही उबकाई आने लगती है। निष्ठुरता , बर्बरता कहें या क्या ? आदमी को आदमी भी न समझा गया। ये किसी स्वस्थ्य दिमाग का काम नहीं है। इनकी केस-हिस्टरी से शायद कोई ठोस हल निकल कर आये ..संस्कार-वान माँ-बाप , स्वस्थ्य बचपन के लिए किये गये उपक्रम ही समस्या के निदान का असली हल हैं। 

गुड़िया , खिलौने ला के देने की बजाय ,
तुझे खिलौना समझ लिया 
ये कैसे सिरफिरे हैं , 
कि बचपन मसल दिया 
ऐसे दागों के साथ परहेज करती है ज़िन्दगी ,
हक़ उसका सरे-आम कुचल दिया 
नन्हीं मैना क्या बतायेगी ,
टूटे खिलौने सा धर दिया 
गुड़ियों की दुनिया होती है बड़ी हसीन ,
चन्दा मामा होते हैं ,होती हैं परियाँ जादू की छड़ियाँ लिए हुए 
झरते हैं फूल डालियों से 
लग गये ग्रहण , तोड़ डाली कलियाँ ,
मन्जर बदल दिया 
मेरी गुड़िया ,सपने में भी तुझे सताये न कोई डर ,
हाय, माँ के काले टीके ने भी कोई असर न किया ...