बुधवार, 29 अगस्त 2012

नहीं हूँ मैं मन ...

चार महीने की लम्बी यातना सह कर जब खड़ी हुई तो क़दमों के साथ साथ मन ने भी चलने से इन्कार कर दिया । लगा कि अब आगे की ज़िन्दगी इसी असहाय सी अवस्था में काटनी पड़ेगी । वक्त कैसे कटेगा और मन ने अपनी पुरानी कमजोरियाँ भी उभार लीं ।मुझे पानी के नीचे जाने और बन्द कमरे में दम घुटने से डर लगता था ,इसीलिए मैं समुद्र में स्नौर्कलिंग भी नहीं कर पाई थी । मुझे समझ में आने लगा कि  मैं फिर से अवसाद की तरफ जा रही हूँ । छोटी से छोटी बात भी मन में खलबली मचा रही थी , घर में अकेले पड़ जाने से तो बेहद घबराहट हो रही थी ।यहाँ तक कि मौत का डर भी सता रहा था ...तो क्या हमारी मंजिल मौत है ...जब वक्त इतना भारी है तो क्या करेंगे जी कर ...मन ने दीन दुनिया से आँखें फेरनी चाहीं ।जब कि चार महीने जब तकलीफ़ ज्यादा थी तो एक अजब सी स्थिरता थी मन में ...तो फिर ये क्या मेरी सकारात्मक ऊर्जा खत्म होती जा रही थी।

मैंने हिम्मत कर के खुद से कहा कि ये तो मन है जो मुझे गुमराह कर रहा है ...और मैं मन नहीं हूँ ...नहीं हूँ मैं मन ...मैं तो इस मन को भी चलाने वाली चेतना हूँ । अपने आप को मैंने एक चपत लगाई ...जब मैं उस वृहत चेतना से अलग हो कर आई हुई उसी का अँश हूँ तो मैं अपनी ताकत क्यों भुला रही हूँ ।  मुझे याद आया कि अभी कुछ ही दिन पहले मैंने एक अखबार में पढ़ा था कि एक लेखक के एक्सीडेन्ट के बाद पीठ में गूमड़ और हाथ में डंडा आ गया था और किस तरह तैर तैर कर उन्हों ने अपना गूमड़ ठीक कर लिया था और डंडा त्याग दिया था । आदमी की इच्छा-शक्ति से तो असंभव काम भी संभव हो जाते हैं । इसके साथ ही याद आई पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की , वो क्या जानतीं थीं कि इतनी उम्र में वो प्रेजीडेंट बनेंगी । कौन जानता है कि कब ज़िन्दगी उसे उमँग से भरी एक नई दिशा दे देगी । राजनीति या कीर्ति में मेरी रूचि नहीं है , मगर ऐसे उदाहरण तो मन को उठाने वाले हैं और किसी भी क्षेत्र में हो सकते हैं । 

अगर हमारी किस्मत पहले से लिखी होती है तो मैंने समझा कि किसी बड़े अवाँछित कर्म का फल भोग लिया और दुःख से सही सलामत बाहर आ पाई यानि कर्म कटा । हमसे सीधे तौर पर जुड़े या अपरोक्ष रूप से जुड़े लोगों के साथ कर्मों का एकाउन्ट हम यूँ ही नहीं बन्द कर सकते । ये हम पर है कि हम वातावरण को बोझिल बनायें या खुशनुमा । ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में हर चेहरा भरमाया हुआ , घबराया हुआ ...हमें क्या देगा ,जब उसके पास ही वो नहीं है ...जिसकी उसे तलाश है और जो हम भी ढूँढ रहे हैं । और अगर हम ये सोच सकें कि मेरे आस पास की आत्माओं के प्रति जो मेरी जिम्मेदारी है उसे पूरा करने के लिए ही मुझे भेजा गया है , बेशक मैं बहुत सुविधा संपन्न या सक्षम न होऊं , मगर एक नैतिक भावना पूर्ण थपकी तो दे ही सकता हूँ । देने के लिए उठा हाथ ही मन को तृप्त कर देता है , मन को उद्देश्य मिलते ही दिशा मिल जाती है और दिशा मिलते ही मन सहज होने लगता है।

तो हाँ , कुछ दिन लगे मुझे सँभलने में। इस लेख को मैं इसलिए भी लिख रही हूँ कि ये किसी और के भी काम का हो सकता है ।मैंने समझा कि  मन किसी भी सीमा तक आदमी को भटका सकता है , पीड़ा में कुछ सूझता ही नहीं । अध्यात्म ही वो आईना है जो हमारी चेतना से हमारा परिचय करवाता है । हम तो इस मन को भी चलाने वाले हैं फिर हम इसका ही कहना क्यों मान लेते हैं । ज़िन्दगी जैसा उपहार पा कर भी हम उसका सम्मान नहीं करते । 

और याद आया , जो मुश्किल हालात तुम्हें मार न सकें , वही तुम्हारी ताकत बन कर उभर आयेंगे , क्योंकि तुम उनसे गुजर पाए यानि उतना तनाव तुम्हारी बर्दाश्त के अन्दर था । दुख के बहाव में बह जाना एक सीमित दृष्टिकोण से जीना है । ज़िन्दगी को अगर यज्ञ कहें तो कभी कभी ज़िन्दगी हमारी बड़ी ही प्यारी चीजों की आहुति भी माँग लेती है ,जिनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इक आग का दरिया है और तैर के जाना है , सूफिआना अन्दाज़ से ज़िन्दगी को देखें । 


ज़िन्दगी दरअसल लगाव और विरक्ति का मिला जुला रूप है यानि मध्यम मार्ग ही सुखी रख सकता है । लगाव पूरी दुनिया को अपना समझने का और विरक्ति इतनी कि एक दूरी बना कर चलना । ताकि दुख ज्यादा असर न कर पायें । सब ठीक है , बस अपना रास्ता चुन लें । 

कोई भी व्यक्ति जिसके पास सुन्दरता देखने की योग्यता हो , वह कभी वृद्ध नहीं हो सकता ..........फ्रेंक काफ्का 

सुन्दरता माने क्या ...जीवन सुन्दर बनता है सुन्दर विचारों से ...और विचार तो आपके हाथ की बात है । वीणा से सुन्दर स्वर निकालिये या बेसुरे ......






सोमवार, 13 अगस्त 2012

मन की महिमा

प्रिय बेटी ,
इस बार जब तुम कुछ दिन घर बिता कर वापिस जा रहीं थीं , मन बार बार भर आ रहा था जब तुम मुझे कम्बल ओढ़ातीं थीं , मुझे लेटे रहने की हिदायतें देतीं थीं , स्टीम्ड तौलिये से मेरी पीठ सेंकतीं थीं ....मेरा इतना ध्यान रखतीं थीं तो लगता था जैसे प्यार छलक छलक सा रहा हो अँधा क्या मांगे दो आँखें ...बीमार तो शायद यही ढूंढ रहा होता है
मैंने बहुत सोचा कि मैं क्या अपने स्वार्थ के लिए रो रही हूँ ....नहीं मगर मैं तो तुम्हारी  मुहब्बत के लिए रो रही थी बीमारी में अगर किसी की मुहब्बत साथ हो तो सुबह का रँग कुछ और ही होता है बीमारी जल्दी भाग जाती है ऐसे ही पलों में मैंने लिखा ...
 ऐ मुहब्बत मेरे साथ चलो 
के तन्हा सफ़र कटता नहीं  

 

दम घुटता है के
 साहिल का पता मिलता नहीं  

जगमगाते हुए इश्क के मन्जर 

रूह को ऐसा भी घर मिलता नहीं 

 
तुम जो आओ तो गुजर हो जाए 

मेरे घर में मेरा पता मिलता नहीं 

 
लू है या सर्द तन्हाई है

एक पत्ता भी कहीं हिलता नहीं 


ऐ मुहब्बत मेरे साथ चलो 

बुझे दिल में चराग जलता नहीं  


तुम्हीं तो छोड़ गई हो यहाँ मुझको 

ज़िन्दगी का निशाँ मिलता नहीं


लेटे लेटे मैंने तुम्हारी टेंथ के कोर्स की प्रेमचंद की लिखी हुई लघु कहानियों की किताब ' मानसरोवर ' भी पढ़ी , जिसे मैंने सालों साल सँभाल कर रखा था कि कभी वक्त मिलेगा तो पढूँगी और अब जब बिस्तर पर पडी हूँ तो पढ़ा ...इसके पहले ही पन्ने पर तुम्हारे हाथ से लिखा हुआ है ...प्रेम जीवन में सच्ची प्रसन्नता और विकास का कारण है ...Love ..the foundation of true progress and happiness.
ये कितना बड़ा सच है ...जिस कर्म की जड़ में स्वार्थ हो वो कभी सच्ची ख़ुशी नहीं देगा ...जिसकी नीँव में प्रेम हो वो स्वतः ही आनन्द का फल देगा ...बड़े बड़े कर्मों के पीछे प्रेरणा का स्त्रोत प्रेम ही होता है

एक और शिक्षा जो मैंने इस लम्बी बीमारी में पाई वो ये कि हर हालत पर कर्म से काबू पाने का मेरा विष्वास हिल सा गया है ; कर्म से भी कहीं ज्यादा महत्व-पूर्ण हमारा भाव होता है अहसास पर नियंत्रण मामूली बात नहीं है , पर यही सब कुछ है . . अहसास ही राई को पहाड़ बना लेता है और अहसास ही पहाड़ को राई बना सकता है ..मैंने दिन भर में कभी दस मिनट से ज्यादा आराम नहीं किया था ..अब ये चौथा महीना है ...वही  सूनी दीवारें है और छत पर टकटकी लगाए आँखें हैं दिन तारीख कहने को सब बदलते हैं पर मेरे हालात नहीं बदलते माँ  कहतीं थीं कार्तिक में पैदा हुए बच्चों का दुःख चीढ़ा होता है , आसानी से पीछा ही नहीं छोड़ता मैं जानती हूँ मेरे सारे घर को मुझे इस हालत में झेलना आसान नहीं रहा होगा .. ऐसे ही पलों में मैंने खुद को समझाते हुए लिखा ...
हड्डी हड्डी टूट जुड़े 
इन्सां का हौसला परवान चढ़े 
दूर खुदा बैठा ये सोचे 
किसके नाम का मन्तर  ये
 मेरे  जैसा काम करे 
जब तुम मेरे पास आ रहीं थीं मन ने तुम्हारे लिए एक कविता लिख ली थी
मेरी सोन चिरैय्या 
रँग में भी और ढँग में भी 
भीतर भी और बाहर भी  
उजली उजली प्यारी प्यारी 
मेरी नेह की छैयाँ 

आ बैठी घर की मुंडेर पर 
यादों के रँग बिखेर लिए 
धरती नाची , अम्बर नाचा
ता ता थैय्या , ता ता थैय्या 
 तेरी जीत पे सारा घर नाचा 
मेरी सोन चिरैय्या 

अम्बर की बाहें बुलाती लगें 
तू पँख फैलाये गाती लगे 
मन्द हवाएं छू आयें तुझे 
धीरे से मुझे सहलातीं लगें 
धूप सुनहरी आती लगे 
मेरी सोन चिरैय्या

तुमने देखी मन की महिमा कैसे ये कभी रोने लगता है तो कभी हँसने गाने लगता है जानती हो भाव ही मेरी पूँजी है , जैसे ही मैं लिखती हूँ तो जैसे कोई बदली बरस कर चली जाती है और आसमान खिल उठता है , बस वैसे ही मैं भी हल्की हो उठती हूँ
असीम प्यार के साथ 
तुम्हारी मम्मी 
3-जून-2012