रविवार, 10 जुलाई 2011

कुछ संवारा या बिगाड़ा ?

अभी चार दिन पहले तो प्रेजेंटेशन दिया था सारे ट्रेनरज के सामने , और अचानक ये खबर ; कल रात खुद ही इहलीला समाप्त कर ली । कौन जाने उसके मन में क्या क्या चल रहा था , कितना तन्हा था वो । अगरचे मन ही अगुआ है हमारी प्रवृत्तियों का । बहुत आसान है नीचे लुढकना ...मन को जो मालिक बनाया , तो ये अपना काम कर दिखायेगा । बैठा है कोई अपने अन्दर ही ...अपना ही दुश्मन सरीखा ।
किसे दोष दें , उसके ग्रह नक्षत्रों को , उसे या उसके अपनों सहित सारे समाज को । दोष देने से काम नहीं चलता । जब दहाड़ें मार कर रोयेगी उसकी माँ ...क्या बीतेगी उस पर ...किसने देखा , जब गाहे-बगाहे ज्वार उठेंगे उसके सीने में , जिसका इकलौता चिराग था वो । न जाने उस से जुड़े हुए कितने ही लोगों के सीने में तूफ़ान उठेंगे ।
क्या होता है अकेलापन ! खुद ही इक कैद बना कर बैठे होते हैं हम । और ये इक दिन का नतीजा नहीं होता ...धीरे धीरे हम दुनिया से कटते जाते हैं । मन ने न जाने कितना निराशाजनक उठा लिया होता है । हमें पता ही नहीं चलता कि हम किस कोप भवन में जा कर बैठ गए हैं । ऐसा इसलिए भी होता है कि हम अपनी ही ऊर्जा से परिचित नहीं होते , जैसे बैटरी डिस्चार्ज हो जाती है तो प्रकाश खत्म । जबकि हम हैं ही एक प्रकाश , शरीर तो ओढ़नी की तरह मिला है । परिस्थितियां महज एक रास्ता ..एक स्टेज । और हम अपनी आंतरिक ख़ूबसूरती , अपनी क्षमताओं से अनजान होते हैं । जरा उठ कर जिन्दगी का स्वागत कर लें ।
क्या होता है धोखा वोखा ? एक मुसाफिर खाना है ये दुनिया ...सफ़र में संगी-साथी बहुत हैं मिलते ...साथ है चार दिन का ...लेना देना उतना ही बदा था ...मन पे शिकन क्यूं डाल के बैठें । जिन्दगी का पलड़ा हमेशा भारी होना चाहिए ...हालातों से , संघर्षों से , तेरे मन के अंतर्द्वंदों से ।
मन परिस्थितियों में उलझ कर कितना बड़ा नुक्सान कर बैठता है ; जबकि न वक्त ने ठहरना होता है और न परिस्थितियों ने । मन की कमांड अपने हाथ में होनी चाहिए । ये सिर्फ तब होगी जब हम नादानियाँ छोड़ कर सबकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी पायें ...उसका उतना ही भला चाहें जितना अपना चाहते हैं ।
आशा और उमंग ही वो चीज है जो क़दमों में दम भरती है । जो अँधेरा हमने अपने चारों तरफ बुन लिया होता है , वो होता ही प्रकाश का अभाव है । कोई क्षीण सी आशा भी अंधियारे को काट देती है , आँखें साफ़ साफ़ देखने लगतीं हैं । गुजरा हुआ तकलीफ का वक्त भी प्राण शक्ति को मजबूत करके जाता है । मगर उस वक्त को पार तो खुद के बल पर करना पड़ता है । वो कभी जीवन का अंत नहीं हो सकता , और न होना चाहिए । वो तो इक नई शुरुवाद है ..हौसले की , उमंग के अनवरत प्रयास की और अपनी क्षमताओं को पहचान पाने की । हर दिन ये देखना चाहिए कि आज के पन्ने पर हमारे लिए किस्मत ने क्या क्या लिखा है और हमने अपनी तरफ से क्या क्या लिखा ....कुछ संवारा या बिगाड़ा ?
जब हम जीने लगते हैं , सिर्फ अपने लिए
अपने सुख दुःख ही रखते हैं मायने
संकुचित होने लगते हैं दायरे
सड़ांध उट्ठेगी अभी
धुआं धुंआ जमीर से
बहुत आसान है नीचे लुढकना
मन को जो मालिक बनाया
तो ये अपना काम कर दिखायेगा
बैठा है कोई अपने अन्दर ही
अपना ही दुश्मन सरीखा
फूल होने चाहियें खिले
खुशबू-ऐ-आम होनी चाहिए
उठ ज़रा मशाल ले
पहले ही संभाल ले
कीमती है जिन्दगी
इक नई उड़ान ले ...