सोमवार, 17 मई 2010

यूँ सबका खजाना एक हुआ

मेरे हिस्से के सुख-दुख कोई दूसरा न पा सकेगा , न एक पाई कम न एक पाई ज्यादा धन , न एक इँच कम न एक इँच ज्यादा सुख या दुख । ऐसा सोच कर शायद हम नियति पर विश्वासी हो जाते हैं । लोग कहते हैं कि फिर न कोई कर्म करने की जरुरत है न ही कोई उमँग ही बचती है । ऐसे विष्वास उस वक़्त काम आते हैं , जब हम घोर निराशा में होते हैं या जब अति अहम् सीमाएँ तोड़ने लगता है । क्या सब कुछ हमारे करने से हो रहा होता है ? कोई होता है जो अदृश्य होकर काम करता है !

मेरे लिए लिखे गए सुख दुख मुझे ही भोगने हैं । हँस कर , मन बाँट कर , सब्र करते हुए , युक्तियाँ लगा कर भोगने से दुख की तीव्रता कम हो जाती है । चिन्ता करने वाला नास्तिक है ये उक्ति कहती है चीजों को जैसे घटना है , वह तय है , हम चिन्ता करके अपना स्वास्थ्य चौपट करने के सिवा कुछ न कर सकेंगे । हमारे ऐसे कर्म हमारी मन-स्थिति की किस्मत के सूत्रधार जरुर हैं । प्रकृति पर , ऊपर वाले पर विष्वास रखना एक अजब से सँतुलन से अन्तर्मन को भर देता है । उसके न्याय का , उसके होने का अहसास आपको याद दिलाएगा कि कितना ही कुछ उपहार की तरह , प्रेरणा की तरह , मुश्किल वक़्त में सहारा बन कर आ खड़ा होता है । सचमुच अगर हम उस शक्ति के होने में विष्वास रखते हैं तो चिन्ता क्यों करें ? हम तो आस्तिक हैं । रातों की नीँद जो चिन्ता ने हर ली होती है , वो एक इस विचार से ही लौट आयेगी । ऐसे सारे विष्वास निराशा की दवा हैं , जैसे सन्जीवनी बूटी का रूप हैं । हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं । हम वही हैं जो हमारे विचार बिना बोले भी सब तक पहुँचा देते हैं । सुन्दर विचार तो कर्म सुन्दर ! सुन्दर कर्म तो जीवन सुन्दर ! निराशा कहाँ है !
दूर कहीं टिमटिमाता है
मेरी आस का दिया
तू देवदूत बन आता है
मुश्किल की घड़ी में , जाने जिया

उम्मीद पे दुनिया कायम है
यूँ सबका खजाना एक हुआ
जी चाहा जितना ले लेंगे
हम सबने एक ही जाम पिया

मैं हँस सकती हूँ खुद पर भी
दिल ऐसा मेरा तूने मौन किया
चलना है मीलों चल लूंगी
तेरी ऊँगली पकड़ कर , वाह पिया

शनिवार, 1 मई 2010

टिप्पणियों की चाह

जरुरी नहीं कि उत्कृष्ट लेखन पर भी आपको बहुत टिप्पणियाँ मिलें । टिप्पणियाँ पाने के लिए , ध्यान दिलाने के लिए अपनाए गए हथकण्डों से मन को क्षणिक तृप्ति मिल सकती हैइस सब में भटक कर क्या हम अपना असली मकसद भूल नहीं गए ! हमारा लिखा हो सकता है बहुत लोग पढ़ पाए हों , या हो सकता है पढ़ भी लिया हो तो टिप्पणी लिखने का वक्त बचा हो या कई बार नेट की , कम्प्यूटर की गड़बड़ भी सामने आती हैबिना किसी दबाव के पाई गयी टिप्पणियाँ ही सार्थक हैं

लेखन एक शौक की तरह उभर कर सामने आता है और धीरे से हमारी आवश्यकता बन जाता हैबिना लिखे रहा नहीं जाता , मगर लिखा अपने आप जाता हैयानि ख्याल ही हमारी ताकत बन जाता हैहमारे आस-पास जीते जागते लोग जो हमारी आज की स्थिति के लिए जिम्मेदार होते हैं यानि हमारे लेखन का बहुत कुछ दारोमदार परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उन पर भी होता है ; उन्हें हम अनदेखा कैसे कर सकते हैं ! ब्लॉग अपने कर्तव्यों से बढ़ कर नहीं है , रिश्तों की खटास के असर से लेखन अछूता नहीं रह सकेगाटिप्पणियों की प्रतिक्रिया स्वरूप हौसला अफजाई तो होती है , मगर टिप्पणियों को बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जाना चाहिए , इससे हम उलझ कर अपने उद्देश्य से भटक जायेंगेदमदार लेखन तो खुद ही बोल उठेगासराहना भी हो तो भी दिल छोटा नहीं करना चाहिए

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
तब जाकर कहीं होता है , चमन में दीदावर पैदा

वो आँख वाला तो किस्मत से पैदा होता हैहमें तो अपना अपना काम करते चलना हैये भी सच है ' लगती है एक उम्र , तेरी जुल्फ के सर होने तक ' । अचानक की उम्मीद नहीं कर सकते , तपने में वक़्त तो लगता है

टिप्पणियों के लिए तो ये ही कहा जा सकता है ....उलझ मत दिल बहारों में , सहारे टूट जाते हैं , सहारों का भरोसा क्या ........आधार तो अपने अन्दर है