मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

वैराग्य और नैराश्य में अन्तर

वैराग्य और नैराश्य दोनों में इन्सान दुनिया से विरक्त होता जाता है । वैराग्य में दुनिया से दूरी , प्रभु का सामीप्य पाने के लिए होती है । नैराश्य में दुनिया से दूरी दुनिया से भागने के लिए होती है , यानि व्यक्ति इस दुनिया से हार मान कर , अपनी परिस्थितियों से न तो समझौता कर पा रहा है , न ही लड़ पा रहा है । वैराग्य में , प्रभु के होने का , प्रभु से मिलने की लालसा का अहसास बड़ा खुशनुमा होता है ।
कुछ धर्मों में ईश्वर को साकार रूप में नहीं पूजा जाता , उन्हें निराकार रूप में सबमें विद्यमान आत्मा के रूप में माना जाता है । नास्तिक लोगों को भी ये तो मानना ही पड़ेगा कि एक अदृश्य शक्ति है जो हमारे कर्मों का लेखा-जोखा रख रही है , सब कुछ हमारे हाथ नहीं है । जब तक आप चढ़ती कला में हैं , आप नास्तिकता का बखान कर सकते हैं । जैसे ही वक़्त की गर्दिश आयेगी , आप सहारा खोजेंगे ईश्वर के अस्तित्व (शक्ति) को न मानना बिना नींव के खड़े होने जैसा है । ईश्वर के होने का अहसास बड़ा सुंदर है । आपकी दुनिया आबाद है माता , पिता , साथी , भाई-बहनों ,बच्चों और दोस्तों से । हर एक की अपनी जगह है , इनमें से एक भी बिछड़ता है तो हमें उसकी कमी महसूस होती है । ईश्वर वो परम शक्ति है , वो सच्चा हितैषी है , जिसे महसूस करते ही हमारे दिल में उजाला फ़ैल जाता है , उसके होने का अहसास बड़ा सुखद है । ज़रा ईश्वर भक्ति में पहुंचे हुए लोगों के मुखमंडल देखिये , कैसे आभावान ,ओज और तेजस्विता से चमकते हुए , बच्चों के से निश्छल प्यार से दमकते हुए । ये लोग पवित्रता से ईश्वर से जुड़े हुए हैं ।
वैराग्य में ईश्वर से जुड़ने के लिए आशा की किरण है । नैराश्य में आप किसी से जुड़ने नहीं जा रहे , न ही कोई आशा है , आप तो निराशा के गर्त में ख़ुद को धकेल रहे हैं । ये पलायन है और वो जुडाव है । ये पतन है और वो उत्थान है । निराशा में आपको कर्म और भक्ति से जुड़ना चाहिए । शुभता के साथ किए हुए कर्म ईश्वर भक्ति ही हैं ।




वैराग्य और नैराश्य ये सिर्फ शब्द नहीं हैं , इस पर पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है । इन्हीं दो शब्दों ने मुझे धकेल कर कलम उठाने पर मजबूर किया , यही मेरा पहला लेख है । ये लेख तो मन में उठते हुए सौ सवालों के प्रतिफल स्वरूप उपजा है ।इन्सान की जिन्दगी इन्हीं दो शब्दों के आस पास कई बार भटकती है । हर इंसान तनाव और नैराश्य से कई बार दो चार होता है और ढूँढता है जीवन में आनन्द का कोई स्थाई स्त्रोत । वैराग्य की शरण में जाता भी है तो भी आनन्द पाता नहीं है । असल बात ये है कि वैराग्य का सही मतलब समझने के लिये इक उम्र खर्चनी पड़ती है , इक तप करना पड़ता है । वैराग्य दुनिया से दूर जाना है ही नहीं ; सही अर्थों में वैराग्य वस्तु , स्थान , व्यक्ति और भाव से भी आसक्ति के त्याग का नाम है । संसार में रहते हुए भी जब मान मद मोह हानि लाभ का असर आप पर न हो , तब कैसी भी स्थिति क्या आपको विचलित कर पाएगी ? तब संसार आपको एक लीला (ड्रामा ) की तरह नजर आएगा । और लीला करने करने वाले के भेद को समझते हुए आप वाह वाह कर उठेंगे । स्थाई आनन्द है ही अपने रूप में टिक जाने का नाम , एक थर्मोस्टेट जैसा ..सर्दी गर्मी दुःख सुख में एक नियंत्रित तापमान बरकरार रखने वाला ।
हाँ दुनिया के ताप यानि सारी विषम परिस्थितियाँ , सारी ठोकरें भी सार्थक हैं जो आपको धकेल कर ये पाठ पढ़ा कर एक दिशा देना चाह रही हैं । कितना बड़ा भेद है जो हम इन खुली आँखों से नहीं देख पाते , जिसके लिये अन्दर की आँखें यानि ज्ञान चक्षु खोलने पड़ते हैं । ध्यान ये रखना है कि हम खुद को गढ़ पायें न कि टकरा कर टूट जाएँ ।



मेरे इस लेख पर वैराग्य और नैराश्य के कुंजीपटल से कई पाठक गण आए ...अगर हो सके तो अपनी उपस्थिति टिप्पणी के माध्यम से दर्ज करायें । शुक्रिया ...