सोमवार, 14 दिसंबर 2009

लेखन , जैसे जीवन को एक प्रवाह


किसी शायर ने क्या खूब कहा है
दर्द जब हद से गुजर जाए , दवा होता है
मन में ये सवाल उठता था कि ऐसा कैसे हो सकता है , दर्द में तो दिल टूटता है , इन्सान ऐसी परिस्थिति तक से भागता है , फ़िर वही दर्द दवा बन कर उपचार कैसे कर सकता है ! महादेवी वर्मा ने क्या खूब कहा है -
' अभिशाप भी है वही कला , जो करती दर्द निवारण है
मेरे दुःख का साथी ही , मेरे दुःख का कारण है '

वही साथी जो दुख दूर करने वाला था वही अब दुख का कारण बन जाता है , तो क्या वही अभिशाप अब दर्द निवारण भी करेगा ? इसी कड़ी में आगे बढ़ते हैं , सुमित्रा नँदन पन्त ने कहा है -
' आह से निकला होगा गान
वियोगी होगा पहला कवि '

तो क्या सचमुच ठोकर सृजन की ओर ले जा सकती है ? वही मन जो दर्द से तड़पता है , बिखर कर रोता है , दुनिया छोड़ने की बातें करता है ; इसे सबक मानने को कतई तैयार नहीं होता | अब ऐसे तो जिंदगी कटती नहीं , दुख से भारी मन जीवन क्या चलायेगा ! ऐसी हालत में ज्यादा दिन कोई नहीं रह सकता , क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही सहज , सरल और खुश रहना है , और तनाव रहित भी हम तभी रह सकते हैं जब मन पर कोई बोझ न हो | अब इस नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक में बदल लेने का सबसे अच्छा उपाय लेखन है | कविता , कहानी , लेख , संस्मरण कुछ भी लिखने में अनुभव आपकी मदद करेंगे | जिसने दर्द को जितना गहराई से जिया हो या महसूस किया हो , वही उस व्यथा को तीव्र सशक्त माध्यम से व्यक्त भी कर सकता है |सिर्फ़ दर्द नहीं , प्रणय निवेदन , प्रकृति की छटा या कैसे भी प्रसन्नता के पलों को जितनी संजीदगी से उसने जिया है , अभिव्यक्ति दी जा सकती है |
दर्द जब हद से गुजर जाए , दवा होता है
दिल टूटा इश्क में तो जार जार रोता है
फ़िर बताओ गम कैसे हवा होता है
दर्द नगमे गढ़ कर जब हर्फों में बयाँ होता है
वजह जीने की बन कर वो दवा होता है
इक नया साथी सा वो दुआ होता है

कोई प्रेम के आसरे से जी लेता है , कोई कर्तव्य , अधिकार , आशा के सहारे से जी लेता है | सही अर्थों में कर्म पर आश्रित होकर जिया जाता है | लेखन जैसे जीवन को एक प्रवाह दे देता है , दुख के सागर को एक दिशा मिल जाती है और जीवन नियंत्रित होने लगता है | सही कहते हैं जीवन चलने का नाम |

रविवार, 6 दिसंबर 2009

मुक्तेश्वर की पहाड़ियों से



मुक्तेश्वर की पहाड़ियों से सूर्योदय का व दूर हिमालय की पर्वत श्रृंखला का अनुपम दृश्य , २२ नव २००९ ..




चाह कर भी मन के दृश्यों के अलावा प्रकृति पर नहीं लिख पाती , बस कोशिश भर की है ...



दूधिया बर्फ की चादर ओढ़े
चाँदी जैसा रँग हुआ है
पहली किरण सूरज की छूकर
हिमशिखरों का मान बढ़ा है

अलसाई सुबह भी झटपट
आँखें खोले विस्मय में है
हुई प्रकृति है मेहरबान
उपहारों का द्वार खुला है

कहीं हरीतिमा , कहीं लालिमा

सपनों का सा रँग हुआ है
रँग सुनहरी किरणों का और
चन्द्रकिरण सा सिरमौर हुआ है