शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

कैसा हो लेखन



कहते हैं लेखन सामयिक हो तो ज्यादा ध्यान खीँचता है | जब ज्यादा वर्तमान पर लिखा जाता है तो ऐसे में ज्यादा तुलना होने की वजह से पहचान बनाना और मुश्किल है | फ़िर बारी आती है सनसनी-खेज , हैरत-अंगेज घटनाओं पर लेखन की | ऐसी घटनाएँ अचानक होती हैं , आप पैदा नहीं कर सकते |
लिखते वक्त ये सावधानी जरुर बरती जानी चाहिए कि लेखन सत्य पर आधारित हो , सत्य अपने आप में ही दमदार होता है बाकी चमकाने का काम आप कलम से कर लें | कविताओं में तुकबन्दी या छंदबद्धता या लय के लिए कभी सत्य से समझौता न करें | मानव स्वभाव या प्रकृति की समझ ही कविता की जान हो सकती है | इसलिए मूल भाव या जड़ को नजर-अन्दाज़ न करें |
सबसे अच्छा है जैसा आप सोचते हैं वैसा लिखें | क्यों न हम सोचें भी वही जो लिखने लायक हो , जब लिखें तो मन को शर्म से आँख न झुकानी पड़े , दुनिया से नजर न चुरानी पड़े | एक शब्द का कमाल ही हम अपने चारों ओर निजी जिन्दगी में भी और लेखन में भी देखते हैं | शब्द लाने वाला होता है हमारा भाव या विचार | कितना अर्थ-पूर्ण है विचार , एक विचार चेहरा तमतमा जाता है और एक विचार झील जैसे शान्त चित्त में हौले से डुबकी लगा कर आता है | जैसा शब्द दुनिया को देंगे , वैसी ही प्रतिक्रिया पलट कर पायेंगे | शब्द खाली नहीं जाते , टकराते हैं या सँगीत बन जाते हैं |
क्रिया होगी तो
प्रतिक्रिया होगी ही
शब्दों की गूँज
पलट कर आयेगी ही
जन्म लेने से पहले
गला घोंटना नहीं होता
बीज मिट्टी में वही डालना
जो लहलहाये तो
सितारे झिलमिलाते हों
कुछ ऐसा कर
कि खामोशी के भी
फूल झरते हों
अनुगूँज के पर निकल आयें


सिर्फ़ चाहने से हमारा लेखन अच्छा नहीं हो सकता , हाँ ईमानदारी के साथ लिखने से कुछ ऐसा जरुर होगा जो यादगार हो , दुनिया याद रख सके , यही वो दुर्लभ चीज है जो प्रकाश की तरह हमारा पथ आलोकित भी कर सकती है और हमारी ताकत भी बन सकती है |

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

खुशी क्या चीज है


हम सोचते हैं ये कर के या वो पा कर हम खुशी पायेंगे | और उसके बाद क्या खुशी टिक रहती है ? फ़िर कुछ दूसरा , कुछ नया , कुछ बड़ा करने या पाने की चाह सिर उठाये खड़ी हो जाती है | रहते हम अतृप्त ही हैं | जब तक इच्छा रहती है , तब भी खुशी नहीं रहती और इच्छा पूरी होने के बाद भी तृप्ति नहीं है |

खुशी है किस चिड़िया का नाम , ये एक मुंडेर पर बैठी क्यों नहीं रहती ? खुशी तो मन की अवस्था है , जिसे हम बाहरी चीजों और कर्मों से जोड़ लेते हैं | ज्यादा चीजें या पैसा पाने से खुशी नहीं मिलती , खुशी मिलती है ख़ुद को पहचान कर अपनी जरूरतों के अनुरूप लक्ष्यों को पाने से | इसलिए हमें ये समझ लेना चाहिए कि हमारा शरीर , शरीर मात्र नहीं है , शरीर को चलाने वाला प्रकाश भी है। जो ख़ुद ऊर्जा है , दूसरों को भी ऊर्जा से भर सकता है | इस सँसार में हम जहाँ हैं उस परिवार में , समाज में जो हमारे कर्तव्य हैं , उत्तरदायित्व हैं उन्हें पूरा करने में खुशी जरुर मिलती है | खुशी बांटने से खुशी बढ़ती है | सिकुड़ कर बैठ जाने से खुशी आने जाने के सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं , और हम अपनी ताकत भी भुला बैठते हैं | खुशी है तो हमारे अन्दर ही , बस उसका फव्वारा फूटने की देर होती है , वो ऊर्जा आयेगी तो बाहर ही  ...

कीर्तन कभी अकेले बैठ कर करो , कभी सबके साथ
उम्र त्यौहार है और खुशी सौगात
आओ ले लें इसे हाथों -हाथ

...

सोमवार, 3 अगस्त 2009

पहली बार मँच पर


३१ जुलाई , हमारे बैंक का स्थापना दिवस मनाया गया , इस अवसर पर बैंक के परिवार के लोग अपनी अपनी प्रस्तुति भी पेश कर सकते हैं , मुझे भी कहा गया कि कुछ कवितायें पढ़ कर सुनाई जायें | मेरे लिए यह पहला बड़ा मँच था अपनी रचना प्रस्तुत करने का , कुछ बार ईनाम देने के लिए तो मँच पर गई थी , मगर रचनाकार की तरह इतने सारे लोगों के सामने , सचमुच खून सिर की तरफ़ दौड़ने लगता है | मेरे कविता लेखन की उम्र ही ढाई साल की है , हाँ अनुभव की परिपक्वता मेरी उम्र से आँकी जा सकती है |


मैनें किसी से कुछ कहा , मगर एक अनुभव सम्पन्न दोस्त ने कहा , किसी से आँख मिलाना , बस | मेरे एक रिश्तेदार ने एक बार मुझे किसी से मिलवाया था जो व्यक्तित्व विकास पर व्याख्यान देते थे और उनकी किताबें भी बहुत प्रचलित हैं , उनका कहा याद आया कि हम तो जब मँच पर जाते हैं , किसी को कुछ नहीं समझते , ये सोचते हैं कि ये सब लोग हमें ही तो सुनने आए हैं | उन्हों ने कुछ और कठोर शब्द प्रयोग किए थे जो मैं लिखूँगी नहीं | मैंने सोचा ये तो ख़ुद को धोखा देना है , आत्मविश्वास तो सहज रहने में है , किसी को कुछ समझने से अहंकार बढ़ेगा , वो परम -पिता जिसने मुझे लेखनी का उपहार दिया है वो जरुर नाराज हो जाएगा | और फ़िर मैंने सोचा कि सारे उपस्थित जन मेरे पिता यानि खुदा के बच्चे हैं , वही नूर जो मुझमें है , वही सबमें जगमगा रहा है | जो सामने हैं वो मुझसे अलग नहीं हैं | मेरे पिता ने आज मुझे मँच पर भेजा है , ये उसकी इच्छा है , इसे आत्म-विष्वास के साथ सहजता से पूरा करूँ | बस दो-चार पंक्तियाँ लरजती आवाज में , फ़िर कोई बेगाना-पन नहीं लगा |


हमारे बैंक वालों की प्रस्तुति के बाद एक व्यवसायिक ग्रुप को भी बुलाया हुआ था , उनकी प्रस्तुति देखकर मैं सोच रही थी , वो किसी की तरफ़ भी देख नहीं रहे , माइक पकड़े कभी पीछे मुड़ते हैं , कभी किसी वाद्य वाले की तरफ़ निर्देश देते हुए ताल ठोकते हैं , जबकि उनका संगीत तो पहले से ही तय रहता है , ये उनकी शारीरिक हाव-भाव, यानि भाषा आत्म-विष्वास झलकाने के लिए होती है | किसी किसी को देख कर ऐसा लगा , जो गाना वो गा रहे हैं , उसमें उन्होंने कुछ ऐसा काल्पनिक माहौल गढ़ लिया है , जिसमें वो डूब कर गा रहें हैं | जोर-जोर का संगीत और खुले गले से गाना


'तुझे देखा तो ये जाना सनम , प्यार होता है दीवाना सनम '


'कोई जगह नई बातों के लिए रखता है


कोई दिल में यादों के दिए रखता है '


माहौल में एक ऊर्जा भर गई | मेरा ध्यान तो गीत गाने वालों के हाव-भाव और गीत के बोल यानि रचनाकार पर था , कितनी सुन्दर बातें कह जाते हैं गीत के माध्यम से !